हिंदी हिट्स जो तमिल से आए
हिंदी सिनेमा की कई चमकदार हिट्स दरअसल दक्षिण की कहानियों का नया जन्म हैं। नाम अलग, भाषा अलग—पर धड़कन वही। विकिपीडिया की श्रेणियों पर नजर डालें तो तमिल से हिंदी में आए रीमेक की गिनती दो सौ से ऊपर दिखती है। यह सिर्फ स्क्रिप्ट-स्वैप नहीं, बल्कि बाजार, संस्कृति और स्टार-पावर का संतुलित खेल है।
शुरुआत सबसे बड़े मोड़ से करें—2008 की घजनी। ए. आर. मुरुगदॉस ने अपनी ही तमिल फिल्म (2005) को हिंदी में दुबारा गढ़ा। आमिर खान का ट्रांसफॉर्मेशन, ए. आर. रहमान का संगीत और शॉर्ट-टर्म मेमरी लॉस वाला बदला—फिल्म ने देश में 100 करोड़ का दरवाजा खोल दिया। दिलचस्प यह कि तमिल वर्जन का संगीत हैरिस जयराज ने किया था, जबकि हिंदी में सुर बदले और स्केल बढ़ा।
2011 में रोहित शेट्टी की सिंघम ने दक्षिण से आकर हिंदी बाज़ार में पुलिसिया हीरो की खोई चमक लौटा दी। तमिल सिंघम (2010) के सुरिया की जगह यहां अजय देवगन थे और लोकेशन तमिलनाडु से उठकर गोवा–महाराष्ट्र हो गई। इसी से वह ‘कॉप यूनिवर्स’ बना, जिसने दर्शकों को फ्रेंचाइज़ी की नई भाषा समझाई।
क्लासिक कॉमेडी की तरफ देखें तो चाची 420 (1997) का रास्ता साफ तमिल अव्वै शन्मुगी (1996) से होकर आता है। कमल हासन ने दोनों भाषाओं में अपने ही किरदार को अलग सांस्कृतिक संदर्भों में ढाला। यह रीमेक हॉलीवुड की मिसेस डाउटफायर से प्रेरित विचार का भारतीय रूप था, पर रिश्तों, जेंडर-ह्यूमर और घरेलू भावनाओं को हिंदी दर्शक के लिए नए ढंग से प्रस्तुत किया गया।
रोमांस ड्रामा में 2003 का तेरे नाम अक्सर बहस में रहता है। यह फिल्म तमिल सेतु (1999) की आधिकारिक रीमेक है, जिसमें विक्रम की कच्ची-तीखी परफॉर्मेंस याद रहती है। सलमान खान का ‘राधे’ अवतार, संगीत और ‘लवर-बॉय’ इमेज का टेढ़ा मोड़—सबने मिलकर इसे बेहद प्रभावी बना दिया, भले ही उसके ट्रीटमेंट पर आलोचना भी हुई।
यश राज की सांसों में सांसों में गूँजती साथिया (2002) सीधे मणिरत्नम की अलैपायुथे (2000) से आई। शाद अली ने कहानी को मुंबई की रफ्तार में पिरोया और ए. आर. रहमान के धुनों ने तमिल से हिंदी में भावनाओं की निर्बाध ट्रांसफर करा दी।
यही सालों में एक और रोमांटिक ड्रामा ने नई पीढ़ी को अपना बना लिया—रहना है तेरे दिल में (2001)। यह गौतम मेनन की ही तमिल मिन्नाले का हिंदी रूप था। आर. माधवन दोनों भाषाओं में नायक रहे। बॉक्स ऑफिस पर औसत रहने के बावजूद, यह फिल्म बाद में ‘कल्ट’ बन गई—यानी टीवी, संगीत और कॉलेज नॉस्टैल्जिया में लंबा जीवन।
बड़े कैनवास वाली राजनीति का सबसे पॉपुलर रीमेक—नायक: द रियल हीरो (2001)। मूल तमिल फिल्म मुधलवन (1999) में शंकर ने ‘एक दिन का मुख्यमंत्री’ वाला विचार रचा। हिंदी में अनिल कपूर और फिर से ए. आर. रहमान का संगीत—कथा वही, मगर पैमाना और प्रस्तुति उत्तर भारतीय दर्शक के अनुरूप।
एक्शन थ्रिलर्स में फोर्स (2011) की जड़ें गौतम मेनन की काखा काखा (2003) में हैं। जॉन अब्राहम के रॉ-एक्शन और संक्षिप्त भावनात्मक ट्रैक ने हिंदी टोन साधा। वहीं हॉलिडे (2014)—ए. आर. मुरुगदॉस की ही ठुप्पक्की (2012) का रूपांतरण—ने ‘स्लीपर सेल’ के नैरेटिव को मुख्यधारा मनोरंजन में उतारा और अच्छा कलेक्शन किया।
मेनस्ट्रीम में महिला-नेतृत्व वाली एक अहम रीमेक—अकीरा (2016), जो तमिल मouna गुरु (2011) पर आधारित थी। निर्देशक मुरुगदॉस ने नायिका-केंद्रित एक्शन को जगह दी—यह बताता है कि रीमेक सिर्फ सुरक्षित फॉर्मूला नहीं, नई स्टार-इमेज गढ़ने का औजार भी होते हैं।
मणिरत्नम की ओ कधल कनमणि (2015) से बनी ओके जानू (2017) शहरी, लाइव-इन रिश्तों पर सूक्ष्म कहानी थी। हिंदी में ढांचा वही रहा, पर रिसेप्शन ठंडा—यही वो जगह है जहां ‘भाव’ और ‘सांस्कृतिक बारीकियां’ अनुवाद में खो भी सकती हैं।
हाल की मिसाल—विक्रम वेधा (2022)। तमिल ओरिजिनल (2017) के निर्देशक पुष्कर–गायत्री ने ही हिंदी वर्जन बनाया, कास्ट में ऋतिक रोशन–सैफ अली खान थे। समीक्षकों ने सराहा, मगर बॉक्स ऑफिस वैसा नहीं बोला। पोस्ट-पैंडेमिक ऑडियंस के बदलते स्वाद, भारी प्रतिस्पर्धा और ओरिजिनल को OTT पर पहले से देखने वाले दर्शकों ने असर डाला।
अजय देवगन की भोला (2023) ने लोकेश कनकराज की कैथी (2019) का अधिक डार्क, स्टाइलाइज़्ड हिंदी रूप दिखाया—सिनेमैटिक यूनिवर्स की सोच के साथ। यह उदाहरण बताता है कि अब रीमेक ‘किसी एक फिल्म’ से आगे बढ़कर यूनिवर्स बिल्डिंग का हिस्सा भी बन सकते हैं।
कुछ पुराने–मगर बताने लायक नाम—सदमा (1983), जो बालू महेन्द्र की मूनद्रम पिरई (1982) का हिंदी संस्करण है। श्रीदेवी–कमल हासन का दर्द और आखिरी दृश्य—आज भी संदर्भ बनते हैं। वहीं खुशी (2003) तमिल कुशी (2000) की हिंदी रीमेक रही। और 90 के दशक का अनाड़ी (1993) तमिल चिन्ना थम्बी (1991) से सीधे आया—गाँव, परिवार और मासूम रोमांस की टोन जस की तस।
- घजनी (2008) – तमिल घजनी (2005)
- सिंघम (2011) – तमिल सिंगम (2010)
- चाची 420 (1997) – तमिल अव्वै शन्मुगी (1996)
- तेरे नाम (2003) – तमिल सेतु (1999)
- साथिया (2002) – तमिल अलैपायुथे (2000)
- रहना है तेरे दिल में (2001) – तमिल मिन्नाले (2001)
- नायक (2001) – तमिल मुधलवन (1999)
- फोर्स (2011) – तमिल काखा काखा (2003)
- हॉलिडे (2014) – तमिल ठुप्पक्की (2012)
- अकीरा (2016) – तमिल मौना गुरु (2011)
- ओके जानू (2017) – तमिल ओ कधल कनमणि (2015)
- विक्रम वेधा (2022) – तमिल विक्रम वेधा (2017)
- भोला (2023) – तमिल कैथी (2019)
- अनाड़ी (1993) – तमिल चिन्ना थम्बी (1991)
और यह ट्रैफिक एकतरफा नहीं है। तमिल ने भी हिंदी कहानियां अपनाईं—रजनीकांत की बिल्ला (1980) अमिताभ बच्चन की डॉन (1978) से जन्मी, शंकर ने 3 इडियट्स को नानबन (2012) में रूपांतरित किया, अजित कुमार की छोटे पर ताकतवर नर्कोंडा पारवाइ (2019) पिंक (2016) का तमिल रूप है, जबकि यश राज ने बैंड बाजा बारात को तमिल–तेलुगु में आहा कल्याणम (2014) के रूप में उतारा। यह द्वि-दिशात्मक प्रवाह दिखाता है कि कहानी अच्छी हो, तो भाषा सिर्फ नया मंच है।
रीमेक का बिजनेस, क्या बदलता है और आगे क्या
क्यों बार-बार रीमेक? क्योंकि यह ‘प्रूव्ड कंटेंट’ है। पटकथा पर रिस्क कम, बाजार का अंदाजा साफ और स्टार के लिए तैयार ढांचा। निर्माता अब ज्यादातर आधिकारिक अधिकार लेते हैं—कॉन्ट्रैक्ट तय करता है कि कौन-से सीन, गाने और ब्रांडिंग बनी रहेगी और क्या बदल सकता है। कई बार मूल निर्देशक ही रीमेक बनाते हैं—मुरुगदॉस (घजनी, हॉलिडे), सिद्धीक (बॉडीगार्ड, मूल मलयालम के बाद तमिल–हिंदी वर्जन), पुष्कर–गायत्री (विक्रम वेधा) जैसे उदाहरण भरोसा बढ़ाते हैं।
सफलता का फार्मूला फिर भी कॉपी–पेस्ट नहीं है। हिट होने के लिए तीन चीजें साथ आनी चाहिए—लोकलाइजेशन, कास्टिंग और टाइमिंग।
- लोकलाइजेशन: भाषा बदलते ही सामाजिक संदर्भ, हास्य का टेम्पो, रिश्तों की पॉलिटिक्स और यहां तक कि कॉस्ट्यूम भी बदलना पड़ता है। सिंघम का दक्षिण से पश्चिमी तट पर शिफ्ट होना इसकी मिसाल है।
- कास्टिंग: वही किरदार, अलग स्टार—रिस्क यहीं है। विक्रम वेधा में परफॉर्मेंस दमदार थी, पर दर्शक वर्ग की उम्मीदें ओरिजिनल से टकरा गईं।
- टाइमिंग: आज OTT और सबटाइटल्स ने भाषाई दीवारें तोड़ दी हैं। ओरिजिनल पहले से उपलब्ध हो, तो रीमेक को नए हुक चाहिए—नया एंगल, नया सेटिंग या स्टार–इमेज में ट्विस्ट।
कुछ रीमेक बॉक्स ऑफिस पर उम्मीदें तोड़ते हैं—जैसे ओके जानू या हाल के कुछ बड़े बजट रूपांतरण—तो कुछ नए दर्शक खोज लेते हैं, जैसे हॉलिडे। फर्क इस बात से भी पड़ता है कि क्या कहानी ‘पैन-इंडियन’ भावनाओं को छू रही है, या बहुत स्थानीय है।
एक और बदलाव—संगीत और बैकग्राउंड स्कोर। कई बार तमिल का एलबम हिंदी में पूरी तरह नया बनता है (घजनी), तो कभी धुनें जस की तस रहती हैं (साथिया/अलैपायुथे)। संगीत दर्शकों की स्मृतियों में सबसे पहले बसता है, इसलिए यह अनुवाद सबसे संवेदनशील होता है।
बाजार की तरफ देखें तो रीमेक, स्टार लॉन्च या इमेज-रीब्रांडिंग का कारगर टूल हैं। सलमान का तेरे नाम, अजय का सिंघम, जॉन का फोर्स, सोनाक्षी की अकीरा—हर बार स्टार की स्क्रीन-परसना को तेज किया गया। दूसरी तरफ, जब स्क्रिप्ट का ‘दिल’ बदला नहीं जाता, पर दुनिया बहुत बदल दी जाती है, तो कनेक्ट टूट सकता है।
आगे क्या? पैन-इंडिया रिलीज़, डबिंग की बेहतर क्वालिटी, सबटाइटल-फ्रेंडली दर्शक और OTT की पहुंच के बाद भी रीमेक खत्म नहीं होंगे। बस उनका कारण बदलेगा—सीधी कॉपी नहीं, बल्कि ‘रीइमेजिन’ करते हुए। यूनिवर्स-लॉजिक (कैथी/भोला), जेनर-शिफ्ट, या कैरेक्टर-ड्रिवन स्पिन-ऑफ—यही अगली मंजिल है। और हां, दर्शक अब ज्यादा जागरूक हैं; इसलिए बॉलीवुड रीमेक को भी खुद को जायज ठहराने के लिए नई वैल्यू जोड़नी होगी—नए दृश्य, नए दृष्टिकोण और नया भावनात्मक वजन।
कहानी का सार इतना-सा है—जब हिंदी और तमिल एक-दूसरे से सीखते हैं, तो भारतीय सिनेमा का दायरा बड़ा होता है। हर सफल रीमेक, एक सेतु है—जो भाषा नहीं, संवेदना जोड़ता है।
Ankit gurawaria - 22 सितंबर 2025
ये रीमेक्स का जमाना तो बस एक बड़ी आलसी आदत है बॉलीवुड की-जब तक कोई नया आइडिया नहीं आता, तब तक दक्षिण के फिल्मों को घुमाघुमाकर हिंदी में डाल देना। लेकिन सच बताऊं तो कुछ रीमेक्स तो मूल से भी बेहतर हो गए। घजनी का ए.आर. रहमान का संगीत और आमिर का अभिनय-ये तो दोनों ही वर्जन के लिए एक नया स्टैंडर्ड बन गए। और जब तुम देखो कि चाची 420 में कमल हासन का वही डायलॉग अब एक भारतीय घर की चाची के मुंह से निकल रहा है, तो लगता है जैसे कोई अनुवाद नहीं, बल्कि एक अलग भाषा में एक ही आत्मा की बात हो रही है।
और अब जब ओटीटी ने तमिल फिल्मों को सीधे हमारे फोन पर ला दिया है, तो रीमेक का मतलब बदल गया। अब ये सिर्फ कॉपी नहीं, बल्कि एक रिइमेजिनिंग है। भोला जैसी फिल्में तो बिल्कुल नए विजुअल लैंग्वेज के साथ आईं, जिसमें एक्शन और डार्क टोन एक नए तरीके से बुने गए। अगर ये ट्रेंड जारी रहा, तो भारतीय सिनेमा अब एक एकीकृत नैरेटिव लैंडस्केप बन जाएगा-जहां तमिल, हिंदी, तेलुगु सब एक दूसरे के आईने होंगे।
AnKur SinGh - 22 सितंबर 2025
इस लेख को पढ़कर मुझे गर्व हुआ कि भारतीय सिनेमा एक ऐसा जीवंत प्रणाली है जो भाषा की सीमाओं को पार कर जाता है। यह सिर्फ रीमेक नहीं, यह एक सांस्कृतिक संवाद है। जब मणिरत्नम की अलैपायुथे का संगीत शाद अली के हाथों से साथिया में बदल गया, तो यह एक भावनात्मक अनुवाद हुआ-जहां दक्षिण की गहराई और उत्तर की भावुकता एक साथ बह गईं।
इस तरह के रीमेक्स ने भारत के विभिन्न राज्यों के बीच एक अदृश्य बंधन बनाया है। यह एक ऐसा उदाहरण है जहां सिनेमा ने राष्ट्रीय एकता को नहीं, बल्कि सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा दिया। आज एक दिल्ली का लड़का तमिल फिल्म देख रहा है, और एक चेन्नई की लड़की हिंदी रीमेक को फिर से देख रही है-यही तो वास्तविक भारत है।
मुझे आशा है कि अगले पीढ़ी के निर्माता इसी आदत को आगे बढ़ाएंगे-न केवल रीमेक करेंगे, बल्कि एक साथ बनाएंगे। जहां एक ही कहानी के अलग-अलग संस्करण एक ही फिल्म के रूप में जारी हों। यही होगा भारतीय सिनेमा का अगला युग।
Sanjay Gupta - 23 सितंबर 2025
ये सब बकवास है। बॉलीवुड के पास कोई मूल आइडिया नहीं है, इसलिए दक्षिण के फिल्मकारों के दिमाग को चुरा रहा है। तुम्हारे यहां घजनी को बहुत सराहा जा रहा है, लेकिन क्या तुम भूल गए कि इसका मूल तमिल वर्जन तो 2005 में आया था और तब तक बॉलीवुड ने खुद की कोई बड़ी फिल्म नहीं बनाई? अजय देवगन का सिंघम? तमिल में तो सुरिया ने ये किरदार बना दिया था।
और अब तुम बता रहे हो कि ये रीमेक्स नई जेनरेशन के लिए एक सेतु हैं? बस एक आलसी बिजनेस मॉडल हैं। ओटीटी पर तमिल फिल्में उपलब्ध हैं, तो फिर रीमेक क्यों? क्योंकि बॉलीवुड के पास न तो नए लेखक हैं, न नए निर्देशक, न ही कोई जोखिम उठाने की हिम्मत।
अगर ये रीमेक्स असली ताकत होती, तो तुम एक नया जेनरेशन का स्टार लॉन्च कर पाते। बल्कि तुम तो सलमान के नाम से हर साल एक नई फिल्म बना रहे हो। ये नहीं कि तुम भारतीय सिनेमा को बचा रहे हो-तुम उसे दफना रहे हो।
Kunal Mishra - 23 सितंबर 2025
यह लेख तो एक बड़े बाजारी तर्क का एक निराशाजनक निबंध है। आप इसे रीमेक के रूप में नहीं, बल्कि एक आधिकारिक अनुवाद के रूप में देखना चाहिए-एक भाषाई और सांस्कृतिक असमानता का निर्माण। जब हिंदी रीमेक में ए.आर. रहमान के संगीत को रिमिक्स किया जाता है, तो वह असल में एक निर्माता की शक्ति का प्रतीक है-एक दक्षिणी कलाकार की आत्मा को उत्तरी बाजार के लिए री-पैकेज करना।
और जब आप कहते हैं कि 'कहानी अच्छी हो, तो भाषा सिर्फ नया मंच है', तो आप भूल रहे हैं कि भाषा ही संस्कृति की जड़ है। तमिल फिल्मों में वह जेंडर-ह्यूमर, वह घरेलू तनाव, वह धार्मिक अंतर्निहितता-ये सब जब हिंदी में आते हैं, तो वे एक बेमानी ट्रांसलेशन बन जाते हैं।
ओके जानू का असफल होना इसी लिए हुआ। आपने शायद नोट्स लिखे, लेकिन आत्मा नहीं बदली। और अब जब आप भोला को यूनिवर्स बिल्डिंग का नमूना बता रहे हैं, तो यह तो बस एक डार्क फैंटेसी है-एक बॉलीवुड फैनटेसी जो अपने आप को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रहा है।
Ron DeRegules - 24 सितंबर 2025
देखो ये बात सच है कि बॉलीवुड रीमेक्स करता है लेकिन ज्यादातर बार वो लोकलाइजेशन नहीं करता बस एक्टर बदल देता है और लोकेशन बदल देता है। जैसे सिंघम तो तमिल में एक बहुत अच्छी फिल्म थी लेकिन हिंदी वर्जन में जब अजय देवगन आए तो वो बिल्कुल अलग टोन आ गया। वहीं तेरे नाम वाली फिल्म तो एकदम फेल हो गई थी अगर तुम मूल वर्जन देखोगे तो विक्रम का अभिनय बेहतर था।
और संगीत का मामला तो बहुत जरूरी है। कई बार तमिल वर्जन का संगीत हिंदी में भी रख दिया जाता है जैसे साथिया में तो वो धुन वही रही लेकिन घजनी में तो पूरा नया संगीत बनाया गया। ये बात है कि जिस फिल्म में भावनाएं ज्यादा हों उसमें संगीत बदलना जरूरी है।
और अब जब ओटीटी पर तमिल फिल्में आसानी से मिल रही हैं तो रीमेक्स का मतलब बदल गया है। अब ये नहीं कि लोग नहीं देखते बल्कि ये है कि लोग चाहते हैं कि उनके लिए एक नया अनुभव बनाया जाए।
Manasi Tamboli - 25 सितंबर 2025
मैंने जब पहली बार घजनी देखी तो रो पड़ी। उस दिन मैंने समझा कि दर्द को भाषा नहीं बदलती, बल्कि वह अपने आप में एक अलग जीवन जीती है। तमिल में जो आत्मा थी, वही हिंदी में आमिर के आँखों में बह रही थी।
और जब मैंने ओके जानू देखी तो लगा जैसे कोई अपने प्यार को अनुवाद करके भूल गया है। भावनाएं तो वही थीं, लेकिन उनका तापमान बदल गया। शायद हिंदी में बात करने का तरीका ही अलग है।
हर रीमेक मेरे लिए एक आत्मा का यात्रा है। एक आत्मा जो भाषा बदलकर भी अपने दर्द को बांटती है। और यही वजह है कि मैं हर रीमेक को देखती हूँ-क्योंकि यही वो जगह है जहां भारत एक है।