पांच साल की हिरासत, जमानत फिर नामंजूर—अब सुप्रीम कोर्ट में दांव
पांच साल से ज्यादा ट्रायल से पहले जेल में—इसी शिकायत को अपना सबसे बड़ा आधार बनाकर छात्र कार्यकर्ता शरजील इमाम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। इमाम ने दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी है जिसमें 2 सितंबर को उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई थी। मामला फरवरी 2020 के उत्तर-पूर्व दिल्ली दंगों की कथित ‘बड़ी साजिश’ से जुड़ा है। इमाम 28 जनवरी 2020 को गिरफ्तार हुए थे और अब आधी दशक से ज्यादा समय से न्यायिक हिरासत में हैं।
याचिका अधिवक्ता फ़ौज़िया शकील के माध्यम से दायर हुई है। दलील साफ है: ट्रायल में व्यवस्थित देरी का खामियाज़ा एक अंडरट्रायल को नहीं भुगतना चाहिए। हाईकोर्ट में उनकी जमानत अर्जी तीन साल में सात अलग-अलग डिवीजन बेंचों के सामने करीब 62 बार लगी, मगर हर बार सुनवाई टलती रही या लंबी होती गई। रक्षा पक्ष का कहना है—लंबी हिरासत अपने आप में सज़ा बन गई है।
दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच—जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर—ने इमाम के साथ उमर खालिद और सात अन्य (गुलफिशा फ़ातिमा, यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट के संस्थापक खालिद सैफ़ी, अतर ख़ान, मोहम्मद सलीम ख़ान, शिफ़ाउर रहमान, मीरान हैदर और शदाब अहमद) की जमानत याचिकाएं अस्वीकार कर दीं। अदालत ने कहा कि उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनकी भूमिका prima facie गंभीर दिखती है। कोर्ट ने यह भी माना कि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) पास होने के तुरंत बाद व्हाट्सऐप ग्रुप बनाना, पर्चे बांटना और चक्का जाम की अपील जैसे कदम शुरुआती योजना का हिस्सा हो सकते हैं।
हाईकोर्ट ने अभियोजन पक्ष के इस तर्क पर भरोसा दिखाया कि यह हिंसा “आकस्मिक” नहीं, बल्कि “पहले से रची गई” साजिश थी, जिसका मकसद व्यापक व्यवधान और तनाव पैदा करना था। बचाव पक्ष की दलील—कि इमाम दंगों के वक्त जेल में थे—को कोर्ट ने यह कहते हुए पर्याप्त नहीं माना कि प्रारंभिक योजना और नेटवर्किंग दंगों से पहले पूरी हो चुकी बताई जाती है।
सुप्रीम कोर्ट अब इस अपील को सूचीबद्ध करेगा। पहली नजर में शीर्ष अदालत के सामने दो सवाल होंगे—एक, पांच साल से अधिक की हिरासत क्या असाधारण देरी का संकेत है; दो, ऐसे मामलों में जमानत पर विचार करते समय अदालत किस तरह सुरक्षा कानूनों के कड़े मानदंड और व्यक्तिगत आज़ादी के बीच संतुलन साधे।
कानूनी कसौटी: Watali बनाम Najeeb, और जमानत की रेखा कहां खिंचे
यह केस दंड प्रक्रिया से आगे बढ़कर विशेष कानून की देहलीज़ पर पहुंचता है। दिल्ली पुलिस ने आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता के साथ-साथ UAPA की धाराएं भी लगाई हैं। UAPA की धारा 43D(5) जमानत को बहुत कठिन बना देती है—अगर कोर्ट को लगे कि अभियोजन का मामला prima facie ‘सही प्रतीत’ होता है, तो जमानत नहीं। सुप्रीम कोर्ट के Zahoor Ahmad Shah Watali फैसले ने इसी कसौटी को और सख्त किया था, जिसमें कोर्ट ने प्री-ट्रायल स्टेज पर सामग्री का सूक्ष्म मूल्यांकन करने से परहेज़ करने को कहा।
लेकिन दूसरी तरफ Union of India बनाम K.A. Najeeb (2021) में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि बहुत लंबी हिरासत और ट्रायल में असहनीय देरी होने पर अदालतें UAPA जैसे कानूनों में भी संवैधानिक आज़ादी को प्राथमिकता दे सकती हैं। Satender Kumar Antil (2022) में भी शीर्ष अदालत ने अंडरट्रायल कैद की बढ़ती समस्या पर चिंता जताई और जमानत को ‘नियम’ और जेल को ‘अपवाद’ बताने वाली परंपरा की याद दिलाई। इमाम की अपील इन्हीं दो ध्रुवों—Watali की सख्ती और Najeeb की राहत—के बीच संतुलन तलाशती दिखेगी।
सवाल यह भी है कि ट्रायल कहां अटका है। इस केस में हजारों पन्नों की चार्जशीट और सैकड़ों गवाह बताए जाते हैं। चार्ज तय करने की बहस भी लंबी चली है। कोविड-19 के सालों में अदालती कामकाज बाधित रहा, फिर बार-बार तारीखें लगीं, और मामलों की संख्या बहुत अधिक होने से सुनवाई का कैलेंडर भारी रहा। बचाव पक्ष इसी देरी को केंद्र में रखकर कह रहा है—जब ट्रायल की गति धीमी है और सबूत अदालत में परखे नहीं गए, तो अनिश्चितकालीन हिरासत कैसे जायज ठहराई जा सकती है।
अभियोजन पक्ष के लिए चुनौती यह रहेगी कि वह कोर्ट को यह भरोसा दिलाए कि मामला न केवल गंभीर है, बल्कि सुनवाई भी यथोचित गति से आगे बढ़ रही है। साथ ही, वह यह भी दिखाएगा कि जमानत मिलने पर साक्ष्यों से छेड़छाड़, गवाहों को प्रभावित करने या सार्वजनिक शांति भंग होने का वास्तविक खतरा है। बचाव पक्ष इसका जवाब इस तरह देगा कि इमाम का आपराधिक इतिहास नहीं है, वे जांच में सहयोग करते रहे हैं और जमानत पर सख्त शर्तें लगाकर जोखिम को कम किया जा सकता है।
पृष्ठभूमि याद करें। दिसंबर 2019 में CAA पास होने के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्व दिल्ली में हिंसा भड़की, जिसमें 53 लोगों की जान गई और 700 से अधिक लोग घायल हुए। पुलिस का आरोप है कि यह ‘बड़ी साजिश’ थी, जिसमें अलग-अलग समूहों के समन्वय से सड़कें रोकने, आवश्यक आपूर्ति बाधित करने और टकराव पैदा करने की योजना बनी। रक्षापक्ष आरोपों को राजनीतिक तरीके से प्रेरित बताता है और कहता है कि शांतिपूर्ण विरोध को आपराधिक साजिश की तरह पेश किया जा रहा है।
हाईकोर्ट का 2 सितंबर का आदेश एक व्यापक संदेश भी देता है—अदालतों के लिए ‘साजिश’ की प्रारंभिक तस्वीर और इलेक्ट्रॉनिक संप्रेषण (चैट, कॉल, पर्चे, मीटिंग) का मूल्यांकन कैसे किया जाए। यह भी कि किसी अभियुक्त की उपस्थिति-गैरहाज़िरी को किस तरह तौला जाए—यानी अगर व्यक्ति घटनास्थल पर नहीं था, तो क्या पहले की ‘तैयारी’ उसे जोड़ने के लिए पर्याप्त है? सुप्रीम कोर्ट अब इन्हीं सवालों पर एक स्पष्ट रेखा खींच सकता है।
आगे की प्रक्रिया आम तौर पर यही होती है—सुप्रीम कोर्ट पहले राज्य/दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी करता है, रिकॉर्ड मंगाता है और फिर तय करता है कि अंतरिम राहत दी जाए या अंतिम सुनवाई जल्द की जाए। अंतरिम जमानत, सशर्त जमानत (जैसे दिल्ली से बाहर न जाना, हर हफ्ते पुलिस स्टेशन में हाज़िरी, पासपोर्ट जमा, मीडिया से परहेज़), या फिर ट्रायल को समयबद्ध करने के निर्देश—ये कुछ संभावित विकल्प हैं।
अगर सुप्रीम कोर्ट Najeeb की राह पर चलता है, तो लंबे अंडरट्रायल के आधार पर राहत का दरवाज़ा खुल सकता है। अगर Watali की कसौटी को प्राथमिकता मिलती है, तो अदालत अभियोजन की ‘prima facie’ थ्योरी के वजन को देखते हुए जमानत को फिलहाल टाल सकती है। दोनों ही स्थितियों में यह आदेश आगे के UAPA मामलों की जमानत बहस को प्रभावित करेगा।
मुख्य पड़ाव एक नजर में:
- 28 जनवरी 2020: शरजील इमाम की गिरफ्तारी।
- फरवरी 2020: उत्तर-पूर्व दिल्ली में हिंसा, 53 मौतें और सैकड़ों घायल।
- पिछले तीन साल: हाईकोर्ट में जमानत अर्जी पर 62 से ज्यादा सुनवाई तारीखें, सात डिवीजन बेंचों के समक्ष सुनवाई।
- 2 सितंबर (ताज़ा आदेश): हाईकोर्ट ने इमाम, उमर खालिद और सात अन्य की जमानत याचिकाएं खारिज कीं।
- अब: सुप्रीम कोर्ट में अपील, जल्द सूचीबद्ध होने की उम्मीद।
यह केस केवल एक अभियुक्त की जमानत से बड़ा है। यह उस बिंदु पर खड़ा है जहां राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कानूनों की सख्ती और व्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक वादे का टकराव साफ दिखता है। अदालत का संतुलन ही आखिरी तस्वीर तय करेगा—क्या पांच साल से ज्यादा की हिरासत ‘बहुत ज्यादा’ है, या गंभीर आरोपों के सामने यह भी कम है?
Pradeep Yellumahanti - 10 सितंबर 2025
पांच साल जेल में, ट्रायल नहीं। अब ये सुप्रीम कोर्ट का मामला है, लेकिन ये सिर्फ शरजील का मामला नहीं, ये हर उस आदमी का मामला है जिसके पास पैसा नहीं, दोस्त नहीं, और नाम नहीं। कानून का नाम लेकर जब दिमाग बंद कर दिया जाता है, तो अदालतें बस एक और ब्यूरोक्रेसी बन जाती हैं।
Shalini Thakrar - 11 सितंबर 2025
UAPA की धारा 43D(5) एक ऐसा legal black hole है जहाँ प्री-ट्रायल स्टेज पर prima facie का बहुत बड़ा वजन दिया जाता है, जिससे न्याय की अवधारणा ही बदल जाती है। ये न्याय नहीं, ये प्री-जुड़मेंट है। सुप्रीम कोर्ट को अब यही देखना होगा कि संविधान की आज़ादी का अर्थ क्या है - और क्या हम इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बेच रहे हैं।
pk McVicker - 13 सितंबर 2025
जेल में बैठा है तो अब बाहर निकलने की उम्मीद क्यों कर रहा है। बस फैसला हो जाए और बंद।
Shivam Singh - 13 सितंबर 2025
yeh sabhi case mei kya hai ki police ne kuch bhi nahi likha hai bas whatsapp group banaya toh saza? aur agar court ne kaha ki ye saszi hai toh phir evidence kahan hai? ye toh bas darr ke naam pe saza di ja rahi hai.
Piyush Raina - 13 सितंबर 2025
क्या कोई जानता है कि इस मामले में चार्जशीट कितने पेज है? और इतनी सारी सुनवाई हुई, लेकिन अभी तक कोई गवाह नहीं सुना गया? ये तो अदालत की बात नहीं, ये तो एक ब्यूरोक्रेटिक ब्लैक होल है। क्या हम न्याय के लिए नहीं, बल्कि न्याय की फॉर्मलिटी के लिए इंतज़ार कर रहे हैं?
Srinath Mittapelli - 15 सितंबर 2025
मैंने ये बात देखी है कि जब कोई आदमी लंबे समय तक जेल में रहता है, तो उसकी आत्मा भी धीरे-धीरे फीकी पड़ जाती है। ये सिर्फ शरजील का मामला नहीं, ये हर उस आदमी का मामला है जिसे बस इतना चाहिए - कि उसका नाम अदालत में सुना जाए। ये न्याय नहीं, ये एक अपराध है।
Vineet Tripathi - 15 सितंबर 2025
अगर तुम्हारा बच्चा जेल में होता तो तुम क्या करते? ये बात नहीं कि वो किसके साथ बात कर रहा था, बल्कि ये कि वो क्यों बात कर रहा था।
Dipak Moryani - 16 सितंबर 2025
Watali vs Najeeb का टकराव असल में ये है कि क्या हम एक देश में रहते हैं जहाँ न्याय दे देना है, या जहाँ न्याय का इंतज़ार करना है।